प्रेस नोट: 8 जनवरी 2018

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Thursday, 10 January 2019
Yuva Halla Bol Press Note 8 January 2019
प्रेस नोट: 8 जनवरी 2018
Wednesday, 26 December 2018
Lucknow Culture
"लखनवी तहजीब के क्या कहने"
लखनऊ में एक "सुलभ शौचालय" के दरवाजे पर टंगा नोटिस😝😝😝
"निहायत ही एहतराम और अदब के साथ कहा जाता है,
की
इस्तेमाल के बाद यादगार छोड जाने से खानदान का नाम रोशन नही होगा,"
"इसिलिए हुजूर से गुजारिश है, कि 'अपने किए कराए पर पानी फेर जाएं!!'....🤣🤣🤣🤣😂😂😂😂
Saturday, 15 December 2018
Benefits Of Wearing Helmet, Very Funny In Hindi
😂😂😂😂👌👌👇👇😂😂😂😂
हेलमेट_पहनने_के_फायदे
1 - सुरक्षित यात्रा।
2 - पुलिस परेशान नहीं करती।
3 - उधारी वाले नहीं पहचान पाते।
4 - गर्लफ्रेंड के मां-बाप- भाई नहीं पहचान पाते।
5 - गंजापन छुपा सकते हो।
6 - घर वापसी के समय उल्टा करके अालू -प्याज- टमाटर रख लो।
7 - चश्मे की कोई जरूरत नहीं।
8 - किसी को नमस्ते करने की जरूरत नहीं। क्यूंकि करोगे तो पहचानेगा नहीं।
9 - गाड़ी बिगड़ने पर उसे स्टूल बना लो।
10 - आपत्तिकाल में यमराज भी नहीं पहचान पाएगा और आपको छोड़ कर आगे बढ़ जाएगा ।
और कितने फायदा लोगे..??
#कम_से_कम_अब_तो_हेलमेट_पहनो।
●
#जनहित_नहीं,
#आपके_हित_में_जारी।
●
#केवल_गुटखा_थूकते_समय_ध्यान_रखे।
😂😂😂😂😂🤣🤣🤣🤣🤣
Monday, 17 September 2018
Daughters Are Dying Untimely In Hindi
बेटिया मर रही हैं
टीवी पे ऐड आता है सिर्फ एक कैप्सूल 72 घंटो के अंदर अनचाही प्रेगनेंसी से छुटकारा। बिना दिमाग की लडकिया फॉर्म में हर हप्ते नया बॉयफ्रेंड, सेक्स, फिर गोलिया
जिसका न कम्पोजीशन पता होता है न कांसेप्ट बस निगल जाती हैं। इन फेक गोलियों में आर्सेनिकभरा होता है यह 72 घंटो के अंदर सिर्फ बनने वाले भ्रूणको खत्म नही करता बल्कि पूरा का पूरा fertility system ही करप्ट कर देता है। शुरू में तो गोलिया खाकर सती सावित्री बन जाती हैं। लेकिन शादीके बाद पता चलता है ये बाझ बन गयी, अब माँ नही बन सकती। तो सबको पता चल जाता है इनका भूतकाल कैसा रहा है। पर कोई बोलता नही जिन्दगी खुद अभिशाप बन जाती है। पहली चीज प्रेगनेंट नही होना तो सेक्स क्यों और दूसरी चीज आशा, ANM, आगनवाडी, सरकारी स्वास्थ्य केंद्र क्या झक्क मराने के लिए हैं। सरकार हर साल मातृत्व सुरक्षा के नाम पर करोड़ो फुक देती है और आपकी जुल्मी लौंडिया खुद डॉक्टर बन जाती है आज हालत ये हैं 13-14 साल की बच्चिया बैग में i-pill लेकर घूम रही है ये मरेंगी नही तो क्या होगा।
हर साल लाखो बच्चिया बच्चेदानी के
कैंसर से मर जाती हैं। उसका एक मात्र कारण माता पिता की लापरवाही।
अगर कुछ समझ आये तो शेयर जरूर करें।
Sunday, 19 August 2018
Importance Of Bakrid / Eid al-Adha in Hindi Part-6
ईदे-क़ुर्बाँ और क़ुर्बानी का महत्व-6
क्या मांसाहार मनुष्य को हिंसक बनाताहै?-
कुछ लोग कहते हैं कि मुसलमानों में मांसाहार और क़ुरबानी की मान्यता उनके अन्दर हिंसक प्रवृत्ति को जन्म देती है। और एक ही दिन (यानी ईदुल-अज़हा को) करोड़ों की तादाद में जानवरों का ख़ून बहाना इसे धार्मिक मान्यता भी दे देता है।
इसकी वास्तविकता पर भी यदि नज़र डालें तो मालूम होगा कि दुनिया में जितने नरसंहार (Mass killings) की घटनाएँ हुई हैं (खाड़ी देशों में थोपे गए युद्ध को छोड़कर), जिनमें अरबों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया, उनमें से किसी में भी मुसलमान शामिल नहीं रहे हैं।
नानकिंग नरसंहार: ये नरसंहार जापान की शाही सेना ने चीन के नानकिंग में किया था। 1937 में हुए इस नरसंहार में 3 लाख लोग मारे गए थे और हज़ारों महिलाओं का रेप हुआ था। ये नरसंहार 6 हफ़्तों तक जारी रहा।
मनीला नरसंहार: दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका से युद्ध में मनीला नागरिकों ने अमेरिका का समर्थन किया जिस पर जापान के लोगों ने लगभग 5 लाख लोग मार दिए।
बॉबी यार नरसंहार: 1941 में जर्मनी की सेना के विरुद्ध यहूदियों ने विरोध प्रदर्शन किया। सैनिको ने यहूदियों पर क़ब्ज़ा कर लिया और उन्हें बॉबी यार की चट्टान पर ले गए और गोली मारकर लगभग 5 लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया।
दी होलोकास्ट: एडॉल्फ़ हिटलर और उसके सहयोगियों ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान यहूदियों को जड़ से मिटाने का फ़ैसला किया। जिसके तहत लगभग 60 लाख यहूदियों की हत्या कर दी, जिनमें 15 लाख बच्चे थे।
रवांडा नरसंहार: यह जननरसंहार तुत्सी और हुतु समुदाय के लोगों के बीच हुआ एक जातीय संघर्ष था। इस नरसंहार में 5 से दस लाख लोग मारे गए।
कलिंगा नरसंहार: कलिंग के युद्ध में चकर्वर्ती सम्राट अशोक की सेना ने लगभग डेढ़ लाख लोगों को घरों से बेघर कर दिया था और लगभग एक लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया था।
दो महायुद्धों और अनेक छोटे-छोटे युद्धों में हुई हिंसा में मुसलमानों का शेयर 0 प्रतिशत रहा है। तीन अन्य बड़े युद्धों में मुसलमानों की भागीदारी न की बराबर रही है; और भारत के हज़ारों दंगों में लगभग 2 प्रतिशत। राष्ट्रपिता और दो प्रधानमंत्रियों के हत्यारे, मुसलमान नहीं थे।
हिंसक प्रवृत्ति में जो लोग दरिन्दों, शैतानों और राक्षसों को भी बहुत पीछे छोड़ गए, हज़ारों इन्सानों को (यहाँ तक कि मासूम बच्चों को भी) ज़िन्दा (लकड़ी की तरह) जलाकर उनके शरीर कोयले में बदल दिए और इस पर ख़ूब आनन्दित तथा मग्न विभोर हुए; गर्भवती स्त्रियों के पेट चीर कर बच्चों को निकाला और उन्हें हवा में उड़ाकर तलवार से दो टुकड़े कर दिए, स्त्री को जलाया, और बच्चे को भाले में गोदकर ऊपर टाँगा और ताण्डव नृत्य किया वे मुसलमान नहीं थे (मुसलमान, मांसाहारी होने के बावजूद इन्सानों का मांस नहीं ‘खाते’)
अगर औरतों के साथ ऐसे अत्याचार व अपमान को भी हिंसा के दायरे में लाया जाए जिसकी मिसाल मानवजाति के पूरे विश्व इतिहास में नहीं मिलती तो यह बड़ी अद्भुत, विचित्र अहिंसा है कि (पशु-पक्षियों के प्रति ग़म का तो प्रचार-प्रसार किया जाए, घड़ियाली आँसू बहाए जाएँ, और दूसरी तरफ़) इन्सानों के घरों से औरतों को खींचकर निकाला जाए, बरसरे आम उनसे बलात् कर्म किया जाए, वस्त्रहीन करके सड़कों पर उनका नग्न परेड कराया जाए, घसीटा जाए, उनके परिजनों और जनता के सामने उनका शील लूटा जाए। नंगे परेड की फिल्म बनाई जाए, और गर्व किया जाए! ऐसी मिसालें इस्लाम को सही रूप में मानने वाले मुसलमानों ने कभी भी क़ायम नहीं की हैं। मुहम्मद (सल्ल०) से शिक्षा-दीक्षा प्राप्त मुसलमानों ने जिन राज्यों को फ़तह किया उनमें शान्ति की स्थापना की। युद्ध के ऐसे नियम और क़ानून बनाए कि रहती दुनिया तक के लोग यदि उनका अनुपालन करें तो हर तरफ़ शान्ति ही शान्ति होगी। प्रोफ़ेट मुहम्मद (सल्ल०) ने युद्ध के मैदान में निहत्थों, धर्मगुरुओं, युद्ध में हिस्सा न लेनेवाले नागरिकों, बच्चों और औरतों पर हाथ तक उठाने को मना किया।
तब किस प्रकार कहा जा सकता है कि मांस खानेवाले मुसलमान लोग हिंसक प्रवृत्ति के होते हैं। सच्ची बात ये है कि उनकी इन्सानियत व शराफ़त ने उनको कभी ऐसा करने ही नहीं दिया। ऐसी ‘गर्वपूर्ण’ मिसालें तो उन पर हिंसा का आरोप लगाने वाले कुछ विशेष ‘अहिंसावादियों’ और ‘देशभक्तों’ ने ही अपने ही देश की धरती पर बारम्बार क़ायम की हैं।
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Importance Of Bakrid / Eid al-Adha in Hindi Part-5
ईदे-क़ुर्बाँ और क़ुर्बानी का महत्व-5
भारतीय परम्परा और क़ुरबानी-
आइए अब भारतीय परम्परा पर भी तथ्यात्मक नज़र डालते हैं। हम देखते हैं कि जो कम्पनी गाड़ियाँ बनाती है वो हर गाड़ी के लिए अलग क़िस्म का fule टैंक बनाती है। कुछ गाड़ियाँ पेट्रोल से चलती हैं, कुछ गेस से, कुछ डीज़ल से और कुछ highly purified तेल से चलती हैं। और कुछ गाड़ियाँ गेस और पेट्रोल दोनों से चल जाती हैं। यदि ख़ालिस पेट्रोल से चलनेवाली गाड़ी में डीज़ल या मिट्टी का तेल भर दिया जाए तो गाड़ी चल ही नहीं पाएगी।
इसी तरह हम देखते हैं कि ईश्वरीय व्यवस्थानुसार जीव तीन प्रकार के होते हैं। शाकाहारी (Herbivorous); अर्थात जो शाक-सब्ज़ी खाते हैं। मांसाहारी (Carnivorous); अर्थात जो मांस खाते हैं और सर्वाहारी (Omnivorous); अर्थात जो शाक-सब्ज़ी भी खाते हैं और मांस भी। ईश्वरीय व्यवस्थानुसार जो जीव शाकाहारी हैं यदि उन्हें मांस खिला दिया जाए तो वे उसको पचा नहीं पाएँगे इसी प्रकार मांस खाने वाले जीव शाक-सब्ज़ी नहीं खा सकते। बकरी, गाय, भैंस इत्यादि शाकाहारी जीव हैं। यदि इनमें से किसी को मांस खिला दिया जाए तो या तो खा ही नहीं पाएँगे, यदि ज़बरदस्ती खिला दिया जाए तो पचा नहीं पाएँगे।इसी तरह शेर,चीता बाघ इत्यादि मांसाहारी जीव हैं यदि इन्हें मांस न दिया जाए तो ये ज़िन्दा नहीं रह पाएँगे।
इन सबमें मनुष्य सर्वाहारी (Omnivorous) प्राणी है यानी ईश्वर ने स्वाभाविक रूप से उसे ऐसा बनाया है कि वह चाहे तो मांस खा सकता है और शाक-सब्ज़ी भी। किन्तु शाक-सब्ज़ी में जिस प्रकार प्रत्येक हरी चीज़ मनुष्य नहीं खा सकता उसी प्रकार वह मांस भी हर प्रकार का नहीं खा सकता। स्पष्ट रूप से जिस तरह ईश्वर ने मनुष्य को यह बताया है कि शाक-सब्ज़ियों में से क्या खाना है और क्या नहीं खाना है, उसी प्रकार मांस में भी उसने बताया है कि कौन-सा मांस खाने योग्य है और कौन-सा खाने योग्य नहीं है। इस सम्बन्ध में ईश्वर ने मनुष्य को बाध्य नहीं किया है कि उसे केवल शाक-सब्ज़ी ही खानी है और न ही इस बात के लिए बाध्य किया है कि उसे मांस अवश्य ही खाना है। इसीलिए लाभप्रद वस्तुओं में से भोजन के रूप में वह क्या खाए और क्या न खाए उसका निजि फ़ैसला होता है। आप शाकाहारी हों या मांसाहारी यह आपका अपना फ़ैसला होना चाहिए न कि किसी का थोपा हुआ। मगर इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि अपने देश में भोजन पर भी राजनीति शुरु हो जाती है। एक समूह के द्वारा मांस खाने वालों (विशेष रूप से एक ही समुदाय के लोगों) को निशाना बनाया जाता है, हालाँकि यह बात जान लेने की है कि दुनिया में आहार के रूप में सब से अधिक उपयोग मांस का ही किया जाता है। हिन्दू धर्म के मानने वालों में भी अधिकतर मांसाहारी है। हिन्दू धर्म में भी और इसके साथ-साथ दुनिया के सभी धर्मों में मांसाहार की अनुमति दी गई है और मांस को एक महत्वपूर्ण मानव आहार माना गया है, आजकल हिंदू भाइयों के यहाँ यह प्रसिद्ध हो गया है कि उनके यहाँ मांस खाने से रोका गया है, परन्तु यह न केवल प्रकृति और मानव स्वभाव के विरुद्ध है बल्कि अपने धर्म और अपने इतिहास से भी अनभिज्ञता है।
गांधी जी ने इस बात को स्वीकार किया है कि एक समय तक हिंदू समाज में पशु बलि और मांस ख़ोरी की प्रक्रिया आम थी। डॉ तारा चन्द के अनुसार वैदिक बलिदान में जानवरों के चढ़ावे भी हुआ करते थे
मनुस्मृति को ‘भारतीय धर्मशास्त्रों में सर्वोपरि शास्त्र’ होने का श्रेय प्राप्त है। इसके मात्र एक (पाँचवें) अध्याय में ही 21 श्लोकों में मांसाहार (अर्थात् जीव-हत्या) से संबंधित शिक्षाएँ, नियम और आदेश उल्लिखित हैं। इनका सार निम्नलिखित है:
1) ब्रह्मा ने मांस को (मानव) प्राण के लिए अन्न कल्पित किया है। ब्रह्मा ने यज्ञों की समृद्धि के लिए पशु बनाए हैं इसलिए यज्ञ में पशुओं का वध अहिंसा है।
2) भक्ष्य (मांसाहार-योग्य) और संस्कृत किया हुआ पशु-मांस ही खाना चाहिए।
3) अगस्त्य मुनि के अनुपालन में पशु-पक्षियों का वध किया जा सकता है।
4) देवतादि के उद्देश्य बिना वृथा पशुओं को मारने वाला मनुष्य उन पशुओं के बालों की संख्या के बराबर जन्म-जन्म मारा जाता है।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि :
(i) आहार के रूप में मांस का उपयोग किया जा सकता है।
(ii) यज्ञ के लिए, श्राद्ध के लिए, और देवकर्म में, पशु वद्ध कोई हिंसा नहीं है।
(iii) पशुओं को व्यर्थ मारना पाप है।
(iv) पशु-पक्षी और वनस्पतियाँ मनुष्य के आहार के लिए ही पैदा की गई हैं।
यही कारण है कि (बौद्ध-कालीन अहिंसा-आन्दोलन के समय, और उसके पहले) वैदिक सनातन धर्म में मांसाहार और यज्ञों के लिए पशु-वध का प्रचलन था। धर्म इसका विरोधी नहीं, बल्कि समर्थक व आह्वाहक था।
ऋग्वेद 10:86:14 में लिखा है-
“इंद्राणी द्वारा प्रेरित याज्ञिक मेरे लिए पन्द्रह या बीस बैल पकाते हैं। उन्हें खाकर मैं मोटा बनता हूँ।”
इसी प्रकार ऋग्वेद 10:28:3 में है कि-
“यजमान बैल का मांस पकाते हैं और तुम उसे खाते हो।”
(अनुवाद डॉ गंगा सहाय शर्मा, संस्कृत साहित्य प्रकाशन, नई दिल्ली)
सत्पथ ब्राह्मण में है कि जितने भी प्रकार के खाद्द अन्न हैं, उन सबमें मांस सर्वोत्तम है।
इसी तरह की शिक्षाएँ हमें अथर्ववेद: 32:1 से 4, 31:1 से 5, में भी मिलती हैं।
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Importance Of Bakrid / Eid al-Adha in Hindi Part-4
ईदे-क़ुर्बाँ और क़ुर्बानी का महत्व-4
क़ुरबानी के भौतिक लाभ-
वैसे तो क़ुरबानी की वास्तविक स्प्रिट तक़वा (अल्लाह की नाफ़रमानी से बचते हुए ज़िन्दगी गुज़ारना) है। यानी ये कि जो बन्दा भी क़ुरबानी करे तो क़ुरबानी करते वक़्त वो इस बात का अहद करे कि वो हर काम अल्लाह की मर्ज़ी के मुताबिक़ उसकी रज़ा के लिए ही करेगा। अल्लाह के हुक्म के सामने वो अपनी महबूब से महबूब चीज़ को भी क़ुरबान कर देगा। यहाँ तक कि अपने जज़्बात व एहसासात तक को क़ुरबान कर देगा। अगर ज़हन व दिमाग़ में वो ख़याल न हो तो फिर ज़ाहिर है कि उस क़ुरबानी के भौतिक फ़ायदे जो होंगे वो सब अपनी जगह लेकिन वो हक़ीक़ी रूह हासिल न हो सकेगी। यहाँ पर कुछ लोग ये एतिराज़ करते हैं कि जब क़ुरबानी की स्प्रिट ही ग़ायब है तो क़ुरबानी करना ख़ाह-म-ख़ाह जानवरों का नाहक़ ख़ून बहाना है, इसको बन्द कर देना चाहिए।
इस सिलसिले में अर्ज़ है कि किसी अमल की स्प्रिट निकल जाने का मतलब ये नहीं है कि उस अमल को तर्क ही कर देना चाहिए। स्प्रिट अगर निकल भी गई हो तब भी किसी अमल को दो वजहों से करते रहना चाहिए। पहली बात ये है कि पता नहीं कब इन आमाल के तने-ख़ाकी में स्प्रिट पैदा हो जाए और आदमी उस अमल को उसी स्प्रिट के साथ करना शुरू कर दे।
दूसरे ये कि कुछ हो या न हो इस अमल के भौतिक फ़ायदे इन्सान और उसके समाज को ज़रूर मिलते रहेंगे। आइए जानते हैं कि क़ुरबानी के भौतिक लाभ क्या हैं:-
हमारे देश में मांस बाक़ायदा एक उद्योग है और बहुत बड़ा निर्यात हमारे देश से होता है। 29 जुलाई को The Economic Times में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है जिसमें कहा गया है कि-
India is the world's third-biggest exporter of beef and is projected to hold on to that position over the next decade, according to a report by the Food and Agriculture Organisation (FAO) and the Organisation for Economic Cooperation (OECD).
OECD-FAO Agricultural Outlook 2017-2026 report released here this week, said that India exported 1.56 million tonnes of beef last year and was expected to maintain "its position as the third-largest beef exporter, accounting for 16 per cent of global exports in 2026" by exporting 1.93 tonnes that year.
The total world beef exports in 2016 was 10.95 million tonnes and was expected to increase to 12.43 million tonnes by 2026, according to the FAO.
Read more at:
http://economictimes.indiatimes.com/articleshow/59820316.cms?utm_source=contentofinterest&utm_medium=text&utm_campaign=cppst
मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद न केवल मांस का निर्यात बढ़ा है बल्कि नए बूचड़खाने खोलने तथा उनके आधुनिकीकरण के लिए करोड़ों रुपए की सबसिडी दी गई है। यह बात भी दिलचस्प है कि देश के सबसे बड़े चार मांस निर्यातक हिन्दू हैं।
ईद-उल अज़हा के अवसर पर लाखों जानवरों की जो क़ुर्बानी होती है उससे देश में अरबों और खरबों रुपयों का चमड़े का व्यवसाय तरक़्क़ी करता है।
मन्दिरों और मठों में श्रधा के साथ जो ढोल बजाया जाता है, सेनिकों के वस्त्र एवं देश की रक्षा में काम आने वाले हथियारों के जो कवर और घोड़ों के ज़ीन इत्यादि बनाए जाते हैं वे सब जानवरों की खाल से ही बनते हैं। इनके अतिरिक्त इन्हीं खालों से ऐसी बहुत-सी वस्तुएँ बनाई जाती हैं जिन्हें हम रोज़-मर्रा की ज़िन्दगी में इस्तेमाल करते हैं जैसे:- बेल्ट / बटुआ / पर्स / कंपनी बेग, जेकेट, जूते, चप्पलें इत्यादि
एक और पहलू से देखिए-
क़ुरबानी के जानवर का गोश्त क़ुर्बानी करनेवाले ख़ुद ही नहीं खा जाते बल्कि उसके तीन हिस्से किये जाते हैं जिसमें से एक हिस्सा उन मिलने-जुलनेवालों को दिया जाता हे जिनके घर किसी वजह से क़ुरबानी नहीं होती और एक हिस्सा ग़रीबों और यतीमों को दिया जाता है जिससे उन्हें भरपूर प्रोटिन एवं ओमेगा-3, फ़ैटी एसिड, आयरन, केल्सियम इत्यादि तत्वों से युक्त आहार मिलता है, विश्व स्तर पर ग़रीब लोगों में कुपोषण का स्तर बहुत गिरा हुआ है, इस त्यौहार की बदोलत करोड़ो ग़रीबों को अच्छा और सेहत के लिए अत्यन्त लाभकारी भोजन मिल जाता है…
इस ईद पर जिन लाखों जानवरों की क़ुर्बानी की जाती है उनको देश के ग़रीब और किसानों से ख़रीदा जाता है, इस प्रकार उन ग़रीबों को अपने जानवरों की तीन से चार गुना क़ीमत मिलती है, जिससे खरबों रुपयों का बाज़ार में flow होता है, यानी दौलत मालदारों की तिजोरियों से निकल कर ग़रीबों की जेबों में चली जाती है।
इसी ईद के अवसर पर हज भी किया जाता जिससे एयर इंडिया और देश की निजी हज कम्पनियों सहित अंतर्राष्ट्रीय उड्डयन उद्योग को अरबों-खरबों रुपियों का transaction होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि क़ुरबानी का असल मक़सद तो बन्दे के अन्दर क़ुरबानी की स्प्रिट पैदा करना है और इसी को हासिल करने की कोशिश भी की जानी चाहिए, लेकिन क़ुरबानी के भौतिक फ़ायदे भी कुछ कम नहीं हैं, इसलिए हमें चाहिए कि दिल के ख़ुलूस के साथ हमें क़ुरबानी करनी चाहिए।
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Importance Of Bakrid / Eid al-Adha in Hindi Part-3
ईदे-क़ुर्बाँ और क़ुर्बानी का महत्व -3
क़ुरबानी का तार्किक औचित्य-
क़ुर्बानी से सम्बन्धित आक्षेप किए जाते हैं कि हर साल लाखों-करोड़ों बेज़बान जानवर क़त्ल कर दिए जाते हैं और फिर कटाक्ष करते हुए कहा जाता है कि क्या अल्लाह इतना निर्दयी है कि वह बेज़बान पशुओं की जान लेने का आदेश देगा? फिर कहा जाता है कि कहाँ हैं वे जो होली, दिवाली, नवरात्री आदि पर तरह-तरह के कटाक्ष करते हैं?
जहाँ तक कटाक्ष का सम्बन्ध है तो इसको किसी भी सूरत में सही नहीं कहा जा सकता। अलबत्ता धर्म के नाम पर जो आडम्बर है उसका विरोध करना आवश्यक है, फिर वो चाहे दिवाली पर छोड़े जाने वाले पटाख़े हों या शबे-बरात पर, धर्म के नाम पर होने वाली ख़राफ़ात चाहे मुहर्रम के नाम पर हो चाहे होली के नाम पर।
यदि इन त्योहारों का कोई धार्मिक, सामजिक अथवा आर्थिक औचित्य है तो उसे सामने लाया जाना चाहिए और जो आडम्बर है उसका विरोध किया जाना चाहिए। यदि होली पर शराब और भाँग पीकर कीचड़ में लथपथ होकर हुड़दंग करने तथा करोड़ों टन लकड़ियों को जलाकर स्वाहा कर देने;.... लाखों टन दूध मूर्ती पर चढ़ाने;.... दिवाली या शबे-बरात पर अरबों रुपयों को पटाख़ों की शक्ल में फूँक डालने या मुहर्रम और मज़ारों पर चादर चढ़ाने और उर्स इत्यादि पर लाखों रुपयों के ख़र्च कर डालने का कोई भी औचित्य है तो उसे लोगों के सामने लाया जाना चाहिए। केवल आस्था के नाम पर अंधविश्वास और आडम्बरों को बढ़ावा देना कोई नैतिक एवं तार्किक आधार तो नहीं है। हम यहाँ पर क़ुरबानी के सम्बन्ध में कुछ तार्किक आधार प्रस्तुत कर रहे हैं।
व्यर्थ, अनुचित एवं अन्यायपूर्ण जीव-हत्या से तो सर्वथा बचना ही चाहिए क्योंकि यह मूल-मानव प्रवृत्ति तथा स्वाभाविक दयाभाव के प्रतिकूल है; लेकिन जीवों की हत्या इतिहास के हर चरण में होती रही है क्योंकि बहुआयामी जीवन में यह मानवजाति की आवश्यकता रही है। जीव-हत्या, अपने अनेक रूपों में एक ऐसी वास्तविकता ही नहीं अटल सत्यता है जिससे मानव-इतिहास कभी भी ख़ाली नहीं रहा। इसके कारक सकारात्मक भी हैं और नकारात्मक भी।
पशुओं, पक्षियों तथा मछलियों आदि की हत्या आहार के लिए भी की जाती रही है, औषधि-निर्माण के लिए भी और उनके शरीर के लगभग सारे अंगों एवं तत्वों से इन्सानों के उपभोग और इस्तेमाल की वस्तुएँ बनाने के लिए भी। बहुत सारे पशुओं, कीड़ों-मकोड़ों, मच्छरों, साँप-बिच्छू आदि की हत्या, तथा शरीर एवं स्वास्थ्य के लिए हानिकारक जीवाणुओं (बैक्टीरिया, germs, वायरस आदि) की हानियों से बचने-बचाने के लिए उनकी हत्या किया जाना सदा से सर्वमान्य और सर्वप्रचलित रहा है। वर्तमान युग में ज्ञान-विज्ञान की प्रगति के व्यापक एवं सार्वभौमिक वातावरण में, औषधि-विज्ञान में शोधकार्य के लिए तथा शल्य-क्रिया-शोध व प्रशिक्षण (Surgical Research and Training) के लिए अनेक पशुओं, पक्षियों, कीड़ों-मकोड़ों, कीटाणुओं, जीवाणुओं आदि की हत्या की जाती रहती है।
ठीक यही स्थिति वनस्पतियों की ‘हत्या’ की भी है। जानदार पौधों को काटकर अनाज, ग़ल्ला, तरकारी, फल, फूल आदि वस्तुएँ आहार एवं औषधियाँ और अनेक उपभोग की वस्तुएँ तैयार करने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं; पेड़ों को काटकर (अर्थात् उनकी ‘हत्या’ करके, क्योंकि उनमें भी जान होती है) उनकी लकड़ी, पत्तों, रेशों (Fibres) जड़ों आदि से बेशुमार कारआमद चीज़ें बनाई जाती हैं। इन सारी ‘हत्याओं’ में से कोई भी हत्या ‘हिंसा’, ‘निर्दयता’, ‘क्रूरता’ की श्रेणी में आज तक शामिल नहीं की गई, उसे दयाभाव के विरुद्ध एवं प्रतिकूल नहीं माना गया। कुछ नगण्य अपवादों (Negligible exceptions) को छोड़कर (और अपवाद को मानव-समाज में हमेशा पाए जाते रहे हैं) सामान्य रूप से व्यक्ति, समाज, समुदाय या धार्मिक सम्प्रदाय, जाति, क़ौम, सभ्यता, संस्कृति, धर्म, ईशवादिता आदि किसी भी स्तर पर जीव-हत्या के उपरोक्त रूपों, रीतियों एवं प्रचलनों का खण्डन अथवा विरोध नहीं किया गया। बड़ी-बड़ी धार्मिक विचारधाराओं और जातियों में इस ‘जीव-हत्या’ के हवाले से ईश्वर के ‘दयावान’ एवं ‘दयाशील’ होने पर प्रश्न नहीं उठाए गए, आक्षेप नहीं किए गए, आपत्ति नहीं जताई गई।
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Importance Of Bakrid / Eid al-Adha in Hindi Part-2
ईदे-क़ुर्बाँ और क़ुर्बानी का महत्व -2
क़ुरबानी का उद्देश्य-
क़ुरआन में अल्लाह कहता है कि हमने इन्सान को जीवन इसलिए प्रदान नहीं किया कि वह जैसे चाहे इसे व्यतीत करे, बल्कि इसलिए प्रदान किया है कि वह देखना चाहता है कि इनमें अच्छे कर्म करनेवाला कौन है और बुरे कर्म करनेवाला कौन? (क़ुरआन 67:2) अब जो लोग ईश्वर के बताए मार्ग पर चलते और उसकी इच्छानुसार जीवन व्यतीत करते हैं वे इस संसार को शान्तिमय बनाने में एक दूसरे का सहयोग करते हैं और जो लोग अपनी इच्छानुसार जीवन व्यतीत करते हैं वे स्वार्थी होते हैं जिससे धरती पर बिगाड़ और अत्याचार फैलता है। इस तथ्य के अनुसार ईश्वर के मार्ग पर चलनेवालों (मुस्लिम) और ईश्वर को न मानकर उसकी आज्ञा का उल्लंघन करनेवालों (काफ़िर) के मध्य कभी सामंजस्य नहीं बनता, बल्कि ये धरती पर बिगाड़ पैदा करनेवाले और अशान्ति फैलानेवाले (काफ़िर) लोग उन शान्तिदूतों को धरती से मिटाने का भरसक प्रयास करते हैं। इस सन्दर्भ में जो लोग अपने-आपको ईश्वर का आज्ञापालक और शान्ति का आवाहक (अर्थात मुस्लिम) कहते हैं उनका कर्तव्य है कि पहले तो उन ज़ालिमों को ईश्वर का आज्ञापालन करने के लिए प्रेम और सहानुभूति के साथ समझाएँ-बुझाएँ और धरती पर सलामती और शान्ति (इस्लाम) की स्थापना में अपनी भूमिका निभाने के लिए आमादा और तैयार करें। लेकिन यदि वो इस बात पर आमादा न हों और ज़ुल्म ही करते चले जाएँ तो फिर उनका मुक़ाबला करें और उनको ज़ुल्म और अत्याचार से रोकने के लिए हर सम्भव प्रयास करें। क़ुरआन के अनुसार जो लोग ये संघर्ष करेंगे और इस काम के लिए अपना सब कुछ निछावर करने के लिए आमादा होंगे वे ईश्वर की निकटता प्राप्त करनेवाले होंगे।
अब जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि क़ुरबानी का अर्थ होता है निकटता प्राप्त करना। इसलिए दुनिया भर के मुसलमान ईदुल-अज़हा के अवसर पर विभिन्न जानवरों की क़ुरबानी करने को ईश्वर की निकटता का साधन समझते हैं। इस क़ुरबानी के द्वारा मुसलमान अपने रब की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए यह संकल्प लेते हैं कि वे ईश्वर के आदेशानुसार इस संसार में इस्लाम अर्थात शान्ति की स्थापना के लिए अपना सब कुछ क़ुरबान कर देंगे। यदि आवश्यकता पड़ी तो वे अपने रक्त की अन्तिम बूँद भी इस मार्ग में बहाने से पीछे नहीं हटेंगे। क़ुरबानी के इस विशेष एवं पवित्र कर्म को अंजाम देने से उनका उद्देश्य समाज में शान्ति की स्थापना के लिए कमरबस्ता होना तो होता ही है, ईश्वर का प्रेम और निकटता प्राप्त करना भी होता है। क्योंकि जो व्यक्ति जानवर को क़ुरबान करता है वह क़ुरआन के उस आदेश को अवश्य ध्यान में रखता है जिसमें अल्लाह कहता है कि
“न इन जानवरों का मांस हम तक पहुँचता है और न ख़ून, बल्कि सिर्फ़ तुम्हारा तक़वा (परहेज़गारी अर्थात ह्र्दय के भीतर मौजूद ईश-भय और ईश प्रेम) पहुँचता है।” (क़ुरआन 22:37)
अर्थात ईश्वर यह देखना चाहता है कि जब तुम जानवर को क़ुरबान कर रहे होते हो तो तुम्हारे हृदय में हमारे और हमारे आदेश (दीन) के प्रति कितना प्रेम है? यही वह भावना थी जो बाबा इबराहीम (अलैहि०) के दिल में थी।
तनिक विचार कीजिए कि जिस समय बाबा इबराहीम (अलैहि०) ने अपने बेटे इस्माईल (अलैहि०) की गर्दन पर छुरी रख दी थी और अपने जिगर के टुकड़े को क़ुरबान कर देने के लिए तैयार हो गए थे, तो उनके हृदय में क्या विचार रहा होगा? यही न कि ईश्वर की आज्ञा हो तो मैं अपनी सबसे क़ीमती चीज़ क़ुरबान कर दूँगा! क्या ईश्वर वास्तव में बेटे की क़ुरबानी चाहता था? नहीं! बल्कि वह तो एक परीक्षा थी जिसमें बाबा इबराहीम खरे उतरे। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि वे ईश्वर की प्रसन्नता की ख़ातिर अपनी हर चीज़ क़ुरबान कर देंगे। यह वास्तव में इतनी बड़ी क़ुरबानी थी कि इसे रहती दुनिया तक के लिए एक प्रतीक बना दिया गया। अतएव हर साल उसी दिन करोड़ों की संख्या में मुसलमान इस महान क़ुरबानी की याद ताज़ा करते हैं।
बाबा इबराहीम जब बेटे की क़ुरबानी कर रहे थे उस समय तो अल्लाह ने
बेटे को बचाकर उस महान क़ुरबानी को क़बूल कर लिया था। आज हम उसी क़ुरबानी को याद करते हैं लेकिन यह क़ुरबानी शुद्ध उसी समय होगी जब दिल में भावना वही हो जो बाबा इबराहीम (अलैहि०) के दिल में थी कि ईश्वर की प्रसन्नता (अर्थात समाज में इन्सानी भाईचारा और शान्ति की स्थापना) के लिए हम हर चीज़ (अर्थात अपनी योग्यताएँ, अपना समय अपनी दौलत यहाँ तक कि अपने जज़्बात और एहसासात तक) क़ुरबान कर देंगे।
स्पष्ट है कि अब प्रलय दिवस तक किसी मनुष्य से यह माँग नहीं की जाएगी कि वह अपने बेटे को उस तरह क़ुरबान करे जिस तरह बाबा इबराहीम क़ुरबान करने के लिए तैयार हो गए थे। लेकिन ईश्वर की मंशा वही है कि मेरा बन्दा मेरी प्रसन्नता के लिए ज़रूरत पड़ने पर अपना सब कुछ क़ुरबान करने के लिए तैयार हो जाए, यही है क़ुरबानी का वह वास्तविक उद्देश्य जिसे हर मुसलमान ही को नहीं बल्कि तमाम इन्सानों को आज समझने की ज़रूरत है।
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