Sunday, 19 August 2018

Importance Of Bakrid / Eid al-Adha in Hindi Part-3

ईदे-क़ुर्बाँ और क़ुर्बानी का महत्व -3

क़ुरबानी का तार्किक औचित्य-
क़ुर्बानी से सम्बन्धित आक्षेप किए जाते हैं कि हर साल लाखों-करोड़ों बेज़बान जानवर क़त्ल कर दिए जाते हैं और फिर कटाक्ष करते हुए कहा जाता है कि क्या अल्लाह इतना निर्दयी है कि वह बेज़बान पशुओं की जान लेने का आदेश देगा? फिर कहा जाता है कि कहाँ हैं वे जो होली, दिवाली, नवरात्री आदि पर तरह-तरह के कटाक्ष करते हैं?
जहाँ तक कटाक्ष का सम्बन्ध है तो इसको किसी भी सूरत में सही नहीं कहा जा सकता। अलबत्ता धर्म के नाम पर जो आडम्बर है उसका विरोध करना आवश्यक है, फिर वो चाहे दिवाली पर छोड़े जाने वाले पटाख़े हों या शबे-बरात पर, धर्म के नाम पर होने वाली ख़राफ़ात चाहे मुहर्रम के नाम पर हो चाहे होली के नाम पर।

यदि इन त्योहारों का कोई धार्मिक, सामजिक अथवा आर्थिक औचित्य है तो उसे सामने लाया जाना चाहिए और जो आडम्बर है उसका विरोध किया जाना चाहिए। यदि होली पर शराब और भाँग पीकर कीचड़ में लथपथ होकर हुड़दंग करने तथा करोड़ों टन लकड़ियों को जलाकर स्वाहा कर देने;.... लाखों टन दूध मूर्ती पर चढ़ाने;.... दिवाली या शबे-बरात पर अरबों रुपयों को पटाख़ों की शक्ल में फूँक डालने या मुहर्रम और मज़ारों पर चादर चढ़ाने और उर्स इत्यादि पर लाखों रुपयों के ख़र्च कर डालने का कोई भी औचित्य है तो उसे लोगों के सामने लाया जाना चाहिए। केवल आस्था के नाम पर अंधविश्वास और आडम्बरों को बढ़ावा देना कोई नैतिक एवं तार्किक आधार तो नहीं है। हम यहाँ पर क़ुरबानी के सम्बन्ध में कुछ तार्किक आधार प्रस्तुत कर रहे हैं।

व्यर्थ, अनुचित एवं अन्यायपूर्ण जीव-हत्या से तो सर्वथा बचना ही चाहिए क्योंकि यह मूल-मानव प्रवृत्ति तथा स्वाभाविक दयाभाव के प्रतिकूल है; लेकिन जीवों की हत्या इतिहास के हर चरण में होती रही है क्योंकि बहुआयामी जीवन में यह मानवजाति की आवश्यकता रही है। जीव-हत्या, अपने अनेक रूपों में एक ऐसी वास्तविकता ही नहीं अटल सत्यता है जिससे मानव-इतिहास कभी भी ख़ाली नहीं रहा। इसके कारक सकारात्मक भी हैं और नकारात्मक भी।

पशुओं, पक्षियों तथा मछलियों आदि की हत्या आहार के लिए भी की जाती रही है, औषधि-निर्माण के लिए भी और उनके शरीर के लगभग सारे अंगों एवं तत्वों से इन्सानों के उपभोग और इस्तेमाल की वस्तुएँ बनाने के लिए भी। बहुत सारे पशुओं, कीड़ों-मकोड़ों, मच्छरों, साँप-बिच्छू आदि की हत्या, तथा शरीर एवं स्वास्थ्य के लिए हानिकारक जीवाणुओं (बैक्टीरिया, germs, वायरस आदि) की हानियों से बचने-बचाने के लिए उनकी हत्या किया जाना सदा से सर्वमान्य और सर्वप्रचलित रहा है। वर्तमान युग में ज्ञान-विज्ञान की प्रगति के व्यापक एवं सार्वभौमिक वातावरण में, औषधि-विज्ञान में शोधकार्य के लिए तथा शल्य-क्रिया-शोध व प्रशिक्षण (Surgical Research and Training) के लिए अनेक पशुओं, पक्षियों, कीड़ों-मकोड़ों, कीटाणुओं, जीवाणुओं आदि की हत्या की जाती रहती है।

ठीक यही स्थिति वनस्पतियों की ‘हत्या’ की भी है। जानदार पौधों को काटकर अनाज, ग़ल्ला, तरकारी, फल, फूल आदि वस्तुएँ आहार एवं औषधियाँ और अनेक उपभोग की वस्तुएँ तैयार करने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं; पेड़ों को काटकर (अर्थात् उनकी ‘हत्या’ करके, क्योंकि उनमें भी जान होती है) उनकी लकड़ी, पत्तों, रेशों (Fibres) जड़ों आदि से बेशुमार कारआमद चीज़ें बनाई जाती हैं। इन सारी ‘हत्याओं’ में से कोई भी हत्या ‘हिंसा’, ‘निर्दयता’, ‘क्रूरता’ की श्रेणी में आज तक शामिल नहीं की गई, उसे दयाभाव के विरुद्ध एवं प्रतिकूल नहीं माना गया। कुछ नगण्य अपवादों (Negligible exceptions) को छोड़कर (और अपवाद को मानव-समाज में हमेशा पाए जाते रहे हैं) सामान्य रूप से व्यक्ति, समाज, समुदाय या धार्मिक सम्प्रदाय, जाति, क़ौम, सभ्यता, संस्कृति, धर्म, ईशवादिता आदि किसी भी स्तर पर जीव-हत्या के उपरोक्त रूपों, रीतियों एवं प्रचलनों का खण्डन अथवा विरोध नहीं किया गया। बड़ी-बड़ी धार्मिक विचारधाराओं और जातियों में इस ‘जीव-हत्या’ के हवाले से ईश्वर के ‘दयावान’ एवं ‘दयाशील’ होने पर प्रश्न नहीं उठाए गए, आक्षेप नहीं किए गए, आपत्ति नहीं जताई गई।
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