ईदे-क़ुर्बाँ और क़ुर्बानी का महत्व-6
क्या मांसाहार मनुष्य को हिंसक बनाताहै?-
कुछ लोग कहते हैं कि मुसलमानों में मांसाहार और क़ुरबानी की मान्यता उनके अन्दर हिंसक प्रवृत्ति को जन्म देती है। और एक ही दिन (यानी ईदुल-अज़हा को) करोड़ों की तादाद में जानवरों का ख़ून बहाना इसे धार्मिक मान्यता भी दे देता है।
इसकी वास्तविकता पर भी यदि नज़र डालें तो मालूम होगा कि दुनिया में जितने नरसंहार (Mass killings) की घटनाएँ हुई हैं (खाड़ी देशों में थोपे गए युद्ध को छोड़कर), जिनमें अरबों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया, उनमें से किसी में भी मुसलमान शामिल नहीं रहे हैं।
नानकिंग नरसंहार: ये नरसंहार जापान की शाही सेना ने चीन के नानकिंग में किया था। 1937 में हुए इस नरसंहार में 3 लाख लोग मारे गए थे और हज़ारों महिलाओं का रेप हुआ था। ये नरसंहार 6 हफ़्तों तक जारी रहा।
मनीला नरसंहार: दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका से युद्ध में मनीला नागरिकों ने अमेरिका का समर्थन किया जिस पर जापान के लोगों ने लगभग 5 लाख लोग मार दिए।
बॉबी यार नरसंहार: 1941 में जर्मनी की सेना के विरुद्ध यहूदियों ने विरोध प्रदर्शन किया। सैनिको ने यहूदियों पर क़ब्ज़ा कर लिया और उन्हें बॉबी यार की चट्टान पर ले गए और गोली मारकर लगभग 5 लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया।
दी होलोकास्ट: एडॉल्फ़ हिटलर और उसके सहयोगियों ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान यहूदियों को जड़ से मिटाने का फ़ैसला किया। जिसके तहत लगभग 60 लाख यहूदियों की हत्या कर दी, जिनमें 15 लाख बच्चे थे।
रवांडा नरसंहार: यह जननरसंहार तुत्सी और हुतु समुदाय के लोगों के बीच हुआ एक जातीय संघर्ष था। इस नरसंहार में 5 से दस लाख लोग मारे गए।
कलिंगा नरसंहार: कलिंग के युद्ध में चकर्वर्ती सम्राट अशोक की सेना ने लगभग डेढ़ लाख लोगों को घरों से बेघर कर दिया था और लगभग एक लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया था।
दो महायुद्धों और अनेक छोटे-छोटे युद्धों में हुई हिंसा में मुसलमानों का शेयर 0 प्रतिशत रहा है। तीन अन्य बड़े युद्धों में मुसलमानों की भागीदारी न की बराबर रही है; और भारत के हज़ारों दंगों में लगभग 2 प्रतिशत। राष्ट्रपिता और दो प्रधानमंत्रियों के हत्यारे, मुसलमान नहीं थे।
हिंसक प्रवृत्ति में जो लोग दरिन्दों, शैतानों और राक्षसों को भी बहुत पीछे छोड़ गए, हज़ारों इन्सानों को (यहाँ तक कि मासूम बच्चों को भी) ज़िन्दा (लकड़ी की तरह) जलाकर उनके शरीर कोयले में बदल दिए और इस पर ख़ूब आनन्दित तथा मग्न विभोर हुए; गर्भवती स्त्रियों के पेट चीर कर बच्चों को निकाला और उन्हें हवा में उड़ाकर तलवार से दो टुकड़े कर दिए, स्त्री को जलाया, और बच्चे को भाले में गोदकर ऊपर टाँगा और ताण्डव नृत्य किया वे मुसलमान नहीं थे (मुसलमान, मांसाहारी होने के बावजूद इन्सानों का मांस नहीं ‘खाते’)
अगर औरतों के साथ ऐसे अत्याचार व अपमान को भी हिंसा के दायरे में लाया जाए जिसकी मिसाल मानवजाति के पूरे विश्व इतिहास में नहीं मिलती तो यह बड़ी अद्भुत, विचित्र अहिंसा है कि (पशु-पक्षियों के प्रति ग़म का तो प्रचार-प्रसार किया जाए, घड़ियाली आँसू बहाए जाएँ, और दूसरी तरफ़) इन्सानों के घरों से औरतों को खींचकर निकाला जाए, बरसरे आम उनसे बलात् कर्म किया जाए, वस्त्रहीन करके सड़कों पर उनका नग्न परेड कराया जाए, घसीटा जाए, उनके परिजनों और जनता के सामने उनका शील लूटा जाए। नंगे परेड की फिल्म बनाई जाए, और गर्व किया जाए! ऐसी मिसालें इस्लाम को सही रूप में मानने वाले मुसलमानों ने कभी भी क़ायम नहीं की हैं। मुहम्मद (सल्ल०) से शिक्षा-दीक्षा प्राप्त मुसलमानों ने जिन राज्यों को फ़तह किया उनमें शान्ति की स्थापना की। युद्ध के ऐसे नियम और क़ानून बनाए कि रहती दुनिया तक के लोग यदि उनका अनुपालन करें तो हर तरफ़ शान्ति ही शान्ति होगी। प्रोफ़ेट मुहम्मद (सल्ल०) ने युद्ध के मैदान में निहत्थों, धर्मगुरुओं, युद्ध में हिस्सा न लेनेवाले नागरिकों, बच्चों और औरतों पर हाथ तक उठाने को मना किया।
तब किस प्रकार कहा जा सकता है कि मांस खानेवाले मुसलमान लोग हिंसक प्रवृत्ति के होते हैं। सच्ची बात ये है कि उनकी इन्सानियत व शराफ़त ने उनको कभी ऐसा करने ही नहीं दिया। ऐसी ‘गर्वपूर्ण’ मिसालें तो उन पर हिंसा का आरोप लगाने वाले कुछ विशेष ‘अहिंसावादियों’ और ‘देशभक्तों’ ने ही अपने ही देश की धरती पर बारम्बार क़ायम की हैं।
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