ईदे-क़ुर्बाँ और क़ुर्बानी का महत्व-7
जीवों से प्रेम का अर्थ-
जीवों से प्रेम का सीधा सा अर्थ यह है कि उनको पाला-पोसा जाए, उनकी देख-रेख की जाए तथा उनकी नस्लों को बाक़ी और शेष रखने का बन्दोबस्त किया जाए।
इस पहलू से यदि देखा जाए तो हमें ज्ञात होगा कि मनुष्य जिन चीज़ों को खाता है या जो चीज़ें मनुष्य के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध होती हैं मनुष्य उनको बाक़ी रखने का प्रयास भी करता है। इसके विपरीत जिन चीज़ों का सेवन वह नहीं करता है या उसके लिए कम उपयोगी होती हैं उन्हें न तो वह बाक़ी रखने का प्रयास करता है और न ही उनसे उसे कोई दिलचस्पी होती है। यदि मनुष्य शाक-सब्ज़ी अधिक खाता है तो इनकी पैदावार के लिए भी चिन्तित रहता है, जिन शाक-सब्ज़ियों का सेवन मनुष्य नहीं करता है उनके बाक़ी रखने का प्रयास भी क्यों करेगा? इसी प्रकार जिन जानवरों के मांस का सेवन जितना अधिक होता है वो जानवर दुनिया में अधिक मात्रा में पाए जाते हैं और जिनके मांस का सेवन मनुष्य नहीं करता है या वे मनुष्य के लिए कम उपयोगी हैं वे कम से कमतर होते चले जा रहे हैं यहाँ तक कि बहुत सी प्रजातियाँ तो विलुप्त हो गई हैं और बहुत-सी विलुप्त होने की कगार पर हैं।
इसका सीधा सा अर्थ यह है कि जिन जानवरों का सेवन मनुष्य के लिए उपयोगी है यदि उनके सेवन से मनुष्य को ज़बरदस्ती रोक दिया गया तो निश्चित रूप से उनको बाक़ी और शेष रखने में मनुष्य की दिलचस्पी कम से कमतर होती चली जाएगी यहाँ तक कि एक दिन समाप्त ही हो जाएगी। परिणामस्वरूप जानवरों की वह प्रजाति कम से कम होती चली जाएगी यहाँ तक कि उसके संसार से विलुप्त होने की सम्भावनाएँ प्रबल होती चली जाएँगी। अब यदि हम किसी ऐसे जानवर को जीवित और बाक़ी देखना चाहते हैं जिनका सेवन मनुष्य के लिए गुणकारी है तो बुद्धि यह अपेक्षा करती है उनके सेवन से मनुष्य को रोका नहीं जाना चाहिए। यदि ऐसा किया गया तो समझ लीजिये कि जानवर की वह प्रजाति एक न एक दिन विलुप्त ही हो जाएगी, जो कि उस प्रजाति के साथ सहानुभूति नहीं बल्कि शत्रुता है।
● इस्लाम का पक्ष-
इस्लाम में न तो हिंसा अपने अंदर कुछ हक़ीक़त रखती है और न ही अहिंसा कुछ है। इस्लाम में अस्ल चीज़ है अल्लाह का हुक्म और नबी (सल्ल०) का तरीक़ा। इस्लाम में हिंसा भी है और अहिंसा भी। कब, कहाँ और कैसे हिंसा करनी है और कहाँ हिंसा से दूर रहना है? बन्दों के लिए इसका निर्धारण करना अल्लाह का काम है। जब बन्दा परमेश्वर के इस अधिकार को मान लेता है तभी उसके जीवन में संतुलन आता है और तभी कोई व्यक्ति मुस्लिम कहलाने का हक़दार होता है। पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल०) का बहुत प्रसिद्ध कथन है कि यदि किसी ने दोस्ती की तो अल्लाह के लिए, दुश्मनी की तो अल्लाह के लिए, किसी को दिया तो अल्लाह के लिए और किसी से कुछ रोका तो अल्लाह के लिए तभी उसका ईमान मुकम्मल होता है।
जिन लोगों ने परमेश्वर के इस अधिकार को नहीं माना और अपनी मर्ज़ी से हिंसा की, उन्होंने धरती को रक्तरंजित कर तबाह कर डाला और जिन लोगों ने इसकी प्रतिक्रिया में केवल अहिंसा का उपदेश दिया उन्होंने भी लोगों का जीना मुश्किल कर दिया। ऐसे उपदेशकों ने दूध, दही, शहद, अंजीर, अचार और लहसुन-प्याज़ जैसी गुणकारी चीज़ों तक के सेवन से रोक दिया। क़ुर्बानी करने वाला और हलाल मांस खाने वाला भी दीन दुखियों की सेवा में लगा देखा जा सकता है। इसके विपरीत बहुत-से शाकाहारियों को इंसानों की लाशों पर ताण्डव करते हुए देखा गया है।
ऐसे बहुत से पंथ हैं जिनमें कोई एक चीज़ खाता है और दूसरा उस चीज़ को खाना पाप समझता है। स्वयं शाकाहारियों में भी आपस में इस विषय पर सहमति नहीं है। कुछ शाकाहारी तो ऐसे हैं जो दूध, दही और शहद आदि खाते हैं परन्तु कुछ दूसरे ऐसे भी हैं जो इन्हें खाना पाप और अमानवीयता मानते हैं। ऐसे में या तो हरेक आदमी अपने-अपने पैमाने पर पूरा उतरने का प्रयास करेगा या फिर सबको मिलकर सबके लिए किसी एक पैमाने को स्टैंडर्ड पैमाना मान लेना चाहिए, जिस पर हरेक आदमी के कर्म को परखा जा सके कि उसने नेक काम किया है या बद; पुण्य किया है या पाप? और वह पैमाना ईश्वरीय आदेश से बढ़कर कोई और नहीं हो सकता। जब तक ईश्वर प्रदत्त इस एक पैमाने को सबके लिए स्टैंडर्ड पैमाना न मान लिया जाए तब तक अनेक पैमाने बनते रहेंगे जिनमें परस्पर विरोध का पाया जाना स्वाभाविक ही है। ऐसे में या तो ख़ामोश रहा जाए या ईश्वर प्रदत्त पैमाने को स्वीकार कर पूरी मानवता को एक ही रंग में रंगने का प्रयास किया जाए।
इसलिए ईदुल-अज़हा केवल खाने-पीने का मसला नहीं है बल्कि इसके साथ और भी बहुत-से ऐसे बिंदु जुड़े हुए हैं जो राष्ट्रहित में भी उपयोगी हैं और मानवहित में भी और स्वयं उन जानवरों के हित में भी।
Cont.....
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