Sunday, 19 August 2018

Importance Of Bakrid / Eid al-Adha in Hindi Part-1

ईदे-क़ुर्बाँ और क़ुर्बानी का महत्व -1

नोट- भाइयो/बहनो! ईदे-क़ुर्बाँ की हक़ीक़ी तस्वीर अपने वतनी भाई/बहनों तक पहुँचाने के लिए आज से हम एक सीरीज़ शुरू कर रहे हैं। अगर आपको हमारी बातें मुनासिब लगें कि ये बातें लोगों तक पहुँचनी चाहिएँ तो इनको पहुँचाने की कोशिश करें। किसी भी तरह का अगर इस मुताल्लिक़ कोई मशवरा हो तो ज़रूर इनायत फ़रमाएँ। मुनासिब होगा तो उसका ज़रूर ख़याल रखा जाएगा।

इस्लाम में त्योहार की हैसियत-

मनुष्य ने जब से सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन व्यतीत करना आरम्भ किया है, लगभग उसी समय से अपनी प्रसन्नता को प्रकट करने के लिए वह कुछ त्योहार मनाता चला आ रहा है। मानो ख़ुशियाँ मनाना मनुष्य का स्वभाव है। मनुष्य की इसी स्वाभाविक माँग के परिप्रेक्ष्य में इस्लाम ने दो त्योहार रखे हैं। ईदुल-फ़ित्र और ईदुल-अज़हा या बक़रईद। (यहाँ यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेने की है कि इन दो त्योहारों के अतिरिक्त इस्लाम में कोई और त्योहार नहीं है अर्थात शबे-बरात, मुहर्रम, ईद मीलादुन्नबी इत्यादि न तो त्योहार हैं और न इनकी कोई इस्लामी मान्यता या महत्व है।)
इन दोनों त्योहारों में से पहला तो मनाया जाता है रमज़ान के रोज़े पूरे होने की ख़ुशी में और इस बात की ख़ुशी में कि अल्लाह ने इसी महीने में मानव जाती के मार्गदर्शन हेतु एक पवित्र किताब क़ुरआन अवतरित की। दूसरा त्योहार यानी ईदुल-अज़हा उस बेमिसाल क़ुरबानी की याद में मनाया जाता है जो अब से लगभग चार हज़ार वर्ष पूर्व ईश्वर के एक सच्चे भक्त और आज्ञापालक हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने अपने मालिक के समक्ष प्रस्तुत की थी। जिस प्रकार ईदुल-फ़ित्र मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी की यादगार और क़ुरआन के अवतरण का जश्न है उसी प्रकार ईदुल-अज़हा बाबा इबराहीम (अलैहि०) की सुन्नत (तरीक़े) की यादगार और दीने-इस्लाम के पूर्ण हो जाने का जश्न है, क्योंकि इसी दिन क़ुरआन की वह आयत अवतरित हुई थी जिसमें अल्लाह ने कहा था कि-

“आज मैंने तुम्हारे दीन को तुम्हारे लिए पूर्ण कर दिया और अपनी नेमत तुम पर पूरी कर दी और तुम्हारे लिए इस्लाम को तुम्हारे दीन की हैसियत से पसन्द किया।” (क़ुरआन सूरा-5, अल-माइदा, आयत-3)

दीन के पूर्ण होने के पहलू से ईदे-क़ुर्बाँ का महत्व यूँ है कि यह उस विशेष घटना की सालाना यादगार है जब दीन इस्लाम की शक्ल में पूर्ण हो गया और पूरी मानव जाति की लोक-परलोक की सफलता सदैव के लिए इसी दीन इस्लाम के अनुसरण में रख दी गई। लेकिन इस ईद के महत्व को और अधिक व्यापक अर्थों में समझने की आवश्यकता है।

ईदुल-अज़हा के अवसर पर पूरी दुनिया के मुसलमान जानवरों की क़ुरबानी करके बाबा इबराहीम (अलैहि०) की उस बेमिसाल क़ुरबानी की याद ताज़ा करते हैं जिससे बड़ी क़ुरबानी का उदाहरण दुनिया के इतिहास में नहीं मिलता। इस पूरे घटनाक्रम को समझने से पहले हमें सबसे पहले क़ुरबानी का अर्थ और उसके उद्देश्य को समझ लेना चाहिए-

क़ुरबानी का अर्थ
वास्तव में क़ुरबानी का अर्थ होता है ‘क़रीब’ या ‘निकट’ होना। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जिन चीज़ों से हम प्रेम करते हैं, जिनका हमारी निगाह में कोई महत्व है (वे चाहे इस समय हमारी हों या भविष्य में हम उनके मिलने की आशा करते हों, भौतिक हों या अभौतिक) हम अल्लाह की प्रसन्नता को प्राप्त करने के मुक़ाबले में कदापि प्राथमिकता न दें।

इस प्रकार क़ुरबानी ईश्वर के दरबार में निकटता प्राप्त करने का बेहतरीन साधन है। इसीलिए ईश्वर ने क़ुरबानी को हर उम्मत (समुदाय) के लिए निश्चित किया था। क़ुरआन इस बात की पुष्टि करते हुए कहता है कि-
“हम ने हर उम्मत के लिए क़ुरबानी का एक क़ायदा निश्चित कर दिया है ताकि (उसी उम्मत के) लोग उन जानवरों पर ईश्वर का नाम लें जो उसने उनको प्रदान किये हैं।” (क़ुरआन, सूरा-22 हज, आयत-34)

अतः हम देखते हैं कि दुनिया की कोई उम्मत (समुदाय) ऐसी नहीं है कि जिसमें क़ुरबानी की अवधारणा न पाई जाती हो। मुहम्मद (सल्ल०) से पहले क्योंकि धर्म के वास्तविक स्वरूप को बदल दिया गया था इसलिए क़ुरबानी का रूप भी बिगड़ गया था। अर्थात लोग क़ुरबानी तो करते थे लेकिन उससे उन्हें न तो कोई आध्यात्मिक लाभ होता और न ही भौतिक लाभ। किन्तु जिस प्रकार मुहम्मद (सल्ल०) ने पूरे धर्म के वास्तविक स्वरूप को लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया उसी प्रकार क़ुरबानी के वास्तविक स्वरूप को भी प्रस्तुत किया जिससे लोगों को उससे होनेवाले न केवल आध्यात्मिक लाभ का ज्ञान हुआ बल्कि भौतिक लाभ भी उससे प्राप्त हो सके।
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